विषाक्त हो रहा है बस्ती जनपद का माहौल,
प्रशासनिक कमजोरियों की हो रही है चर्चा
कुछ कटटरपंथी बस्ती को दंगों की आग मे झोंकने की रच रहे साजिश
अशोक श्रीवास्तव की समीक्षा---हमारा बस्ती जनपद हमेशा से भाई चारे का हिमायती रहा। लेकिन जनपद का माहौल इस वक्त विषाक्त हो चुका है। कुछ लोग बस्ती को दंगों की आग मे झोंकना चाहते हैं। कई महीनो से बाकायदा इसकी साजिश चल रही है और जिला प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा है। हालात इतने बदतर हो गये कि लोग सोशल मीडिया पर आकर अफसरों की प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठा रहे हैं। मीडिया दस्तक ने बार बार इसको लेकर जिला प्रशासन को अपनी खबरों, समीक्षा और संपादकीय के जरिये आगाह किया है, लेकिन अब वो अफसर कहां रहे जो मीडिया रिपोर्ट्स को सज्ञान लें। अब तो वर्ग विशेष के कथित नेताओं और कट्टरता की बुनियाद पर खड़ी सरकारों के आगे प्रशासन घुटनो पर है।
अपनी खुद की सोचने समझने और निर्णय लेने की क्षमता कहां रही। सरकारी तंत्र किसी संस्था, सरकार, व्यक्ति या समुदाय को खुश करने के लिये कार्य करेगा तो अमन चैन कब तक कायम रहेगा इसकी कोई गारण्टी नही। आज बस्ती का माहौल जो बिगड़ता हुआ दिख रहा है उसके जिम्मेदार जितना समाज के तथाकथित ठेकेदार हैं उतना ही प्रशासनिक अफसर। जिसका डर था वही हो रहा है। हम बार बार कह रहे थे कि अभी एक ही समुदाय के लोग सड़कों पर हैं, जब दूसरे समुदाय के लोग भी प्रतिक्रिया देने सड़कों पर उतरेंगे तो सारे उपाय धरे रह जायेंगे और बड़ी क्षति संभावित होगी।
माहौल खराब करने वालों को हतोत्साहित नही किया गया और पानी सिंर से ऊपर चला गया। कुछ लोग अपनी राजनीति चमकाने और मीडिया की सुर्खियों में बने रहने के लिये महीनो से ऐसे कार्य कर रहे हैं जिनका उन्हे अधिकार ही नहीं। पुलिस ऐसे लोगों की भीड़ में हाथ बांधे खड़ी नजर आती है। अब लोग खुद सड़कों पर उतरकर फैसला करने को तैयार हैं। दोनो पक्ष सोशल मीडिया पर आकर शब्दों की मर्यादा तोड़ चुके हैं।
दो विपरीत समुदाय के युवक युवतियों के बीच लव अफेयर हो, मंदिरों चौराहों या सार्वजनिक स्थानों पर मांस मदिरा की दुकानें हों, होटल या ढाबे हों अथवा गैर सरकारी संस्थायें हों, उनके खिलाफ आवाज उठाना, अफसरों को इस्तेमाल करना, सत्ता मे पहुंच की धौंस दिखाकर कार्यवाही कराने की धमकी देना और फिर उनसे धनउगाही कर शांत हो जाना, एक नया ट्रेंड हो गया है। हैरानी ये है कि जनता सब जानती है, अफसर भी अंनभिज्ञ नही हैं और लोग एक हद तक बर्दाश्त कर चुके हैं, सिर्फ नतीजे आने बाकी हैं जिसकी झलकियां शुरू हो चुकी हैं।
भगवा पहने हुये लोगों और कथावाचकों को प्रोटोकाल मिल रहा है, पुलिस अफसर कथित बाबाओं की चरण रज माथे पर लगा रहा है तो आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि देश और समाज किस रास्ते पर जा रहा है। देश का हिन्दू खतरे मे हैं, इस कालखण्ड की शुरूआत 2014 से हुई है। एक तरफ कहा जाता है कि देश को असली आजादी 2014 मे मिली है जब विश्वगुरू की सरकार बनी है। हैरानी इस बात की है कि तभी से हिन्दुओं पर गंभीर संकट है। बताया गया है कि यह संकट 2048 तक बरकरार रहेगा।
जिला प्रशासन उस वक्त कहां था जब लोग मीट मुर्गा की दुकानों पर जाकर दुकानदार से लाइसेंस मांग रहे थे, मीट काटने वाले हथियारों को अवैध बताकर आर्म्स एक्ट मे मुकदमा दर्ज कराने की धमकियां दे रहे थे, एक बड़े वर्ग ने शाबासी दिया और पुलिस तमाशाई के किरदार मे थी, कोई रामपुर मुरादाबाद से आकर बस्ती मे व्यापार नही कर सकता, बस्ती के लोग जो बाहर जाकर व्यापार कर रहे हैं उन्हे वहां से भगाया जाये तो कैसा लगेगा। दुकानों के फूड लाइसेंस को चेक करने का अधिकार एक सिविलियन को किसने दिया। कोई बालिग लड़का लड़की एक दूसरे को पसंद कर शादी करते हैं तो एक सिविलियन को किसने अधिकार दिया तय करने का कि यह लवजेहाद है।
अस्पतालों में इलाज के दौरान बच्चा, महिला या कोई रोगी मर जाये तो डाक्टर को डराने धमकाने और उसे ब्लैकमेल करने का अधिकार किसने दे दिया। ऐसे अनेक मामले हैं जो बेहद आपत्तिजनक हैं। ऐसी गतिविधियों पर रोक लगाने अथवा हतोत्साहित करने की बजाय पुलिस इसमे खाद पानी डालती रही। कुछ गिने चुने मीडिया संस्थान और पत्रकार भी बस्ती को इस मुकाम पर लाकर खड़ा करने के जिम्मेदार हैं। बाकायदा टीम बनाकर कुछ लोग पीड़ित के साथ खड़े हो जाते हैं तो कुछ आरोपी के साथ और फिर शुरू होता है धन उगाही का दौर।
दोनो पक्षों को निशाने पर रखकर तब तक निचोड़ा जाता है जब तक उसमे रस होता है। 20 फीसदी मीडिया को छोड़ दें तो बाकी को समझ मे ही नही आ रहा है कि उनका काम क्या है। वाकई मीडिया की लोकतंत्र में भूमिका क्या है। प्रशासनिक अफसरों को सचेत होना होगा, साथ ही मीडिया को भी। उचित अनुचित मे फर्क समझना होगा, किसे हतोत्साहित करना चाहिये किसे प्रोत्साहित इसकी समझ रखनी होगी। अगर से सारी चीजें नियंत्रित नही होती है तो ये समझा जायेगा कि ये हलचल एक बड़े नुकसान के बाद शांत होगी। फिलहाल समाज को मीडिया और प्रशासनिक अफसरों से सुधार की उम्मीद है।












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