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युवाओं के शौक जानकर हैरान हो जायेंगे आप

अशोक श्रीवास्तव की संपादकीय




बस्ती जनपद में हर तरह के अपराध हो रहे हैं। नई पीढ़ी के हाथों में बेशकीमती महंगी मोबाइलें, लग्जरी गाड़िया और गलत तरीकों से कमाई गई पिता की दौलत है जो उन्हे बरबाद कर रही है। 80 के दशक में लोग देश सेवा, आदर्श परिवार और सुखमय जीवन के लिये पढ़ाई लिखाई और मेहनत करते थे। 90 के दशक में लोग सरकारी नौकरी पाने के लिये पढ़ाई लिखाई करते थे। 2020 आते आते बहुत कुछ बदल गया।


अब पढ़ाई लिखाई जरूरी नहीं, जरूरी भी है तो आज परीक्षा फार्म भरकर दो दिन बाद होने वाली परीक्षाओं को भी टीन एजर्स बड़ी आसानी से टॉप कर रहे हैं। अब पैमाने बदल गये हैं। जो ज्यादा पढ़ा लिखा है, इमानदारी और आदर्श चरित्र व्यवहार के साथ जीवन जी रहा है वह किसी का प्रेरणास्रोत नही बन सकता, परिवार में तिरस्कृत होना उसका मुकद्दर है। कामयाब लोगों में तो उसका नाम कभी नही आ सकता है। एपल की मोबाइल, लग्जरी गाड़ियां, गले में सोने की मोटी माला, उंगलियों में सोने की अंगूठी, जेब में एटीएम और दो चार गर्ल फ्रेण्ड, नशे की लत कामयाब इंसान की पहचान हैं। इसे हासिल करने के लिये चाहे जिस रास्ते पर चलना पड़े लोग जरा भी संकेच नही कर रहे हैं। बहुत मां बाप अपने सामने बेटे बेटियों को इन रास्तों पर जाते देख खुश होते हैं। जो जीवन वे खुद नही जी सके उसकी उम्मीद नई पीढ़ी से करते हैं।


वहीं कुछ परिवार, मां बाप आज भी समाज में हैं जिनका ज़मीर जिंदा है, इसलिये कि उनकी जरूरतें कम हैं। वे स्वाभिमानी है। सम्मान और सिंर उठाकर जीना उनके लिये किसी आभूषण से कम नहीं। वे सोचते हैं ‘कम’ ठीक, ‘ग़म’ नहीं ठीक। वे किसी से कुछ मांगते नहीं और न मांगना चाहते हैं और देने का महौल नही रहा। इसलिये खुद को एक दायरे में रहकर सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं। वे समाज का हीरा हैं लेकिन उन्हे कहीं सम्मान नही मिलता, वे खुद को छिपाकर रखते हैं क्योंकि समाज उन्हे असफल और कमतर आंकता है। ऐस ही लोग समाज को सही दिशा में ले जा सकते हैं। ऐसे लोगों की कांउसिलिंग और संगत में रहकर लोगों में नैतिक मूल्य फिर से वापस आ सकते हैं लेकिन पुलिस थानों से लेकर सरकारी दफ्तरों और आला अफसरों के सामने उनकी कीमत दो कौड़ी है।


इस ओर किसी का ध्यान नही है कि गलत रास्ते पर जा रहे समाज को कैसे रोका जाये। व्यक्तिगत हो या संस्थागत अथवा सरकारी तंत्र, किसी भी स्तर पर सकारात्मक प्रयास नही किये जा रहे हैं। पुलिस को मतलब है अपराधी को पकड़कर जेल भेजने, से, डाक्टर को मतलब है बीमार होने के बाद इलाज करने से, वकील को मतलब है झगड़ा होने के बाद मुकदमा लड़ने से, पत्रकार को मतलब है हादसों के बाद खबर लिखने से। सबका रोल बाद में ही आता है। कोई पहले सोचने और करने को बिलकुल ही तैयार नही है। बस्ती में 3 साल के भीतर आत्महत्या करने वालों की संख्या एक हजार से कम नही है, लेकिन कानूनी औपचारिकता पूरी कर फाइलें बंद कर दी जाती हैं। कोई ये सोचने की जहमत मोल नही लेता कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में लोग सुसाइड जैसा खौफनाक कदम क्यों उठा रहे हैं।

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