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इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस ने की आपत्तिजनक टिप्पणी, देशभर में हो रही चर्चा

इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस ने की आपत्तिजनक टिप्पणी, देशभर में हो रही चर्चा
यूपी डेस्कः
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की पीठ ने एक मामले की सुनवाई के दौरान हैरान करने वाली टिप्पणी किया है। इसको लेकर लेकर पूरे देश में बहंस छिड़ गई है। दरअसल उन्होंने कहा कि “पीड़िता के स्तनों को पकड़ना, उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ना, और उसे पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश करना रेप या रेप की कोशिश नहीं मानी जा सकती। 


इस टिप्पणी के बाद, कोर्ट ने 3 आरोपियों के खिलाफ दायर क्रिमिनल रिवीजन पिटीशन को स्वीकार कर लिया। सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, कोर्ट ने आरोपी आकाश और पवन पर लगाई गई धारा 376 और पाक्सो अधिनियम की धारा 18 को घटा दिया। अब उन पर धारा 354 (इ) यानी नंगा करने के इरादे से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग और पाक्सो अधिनियम की धारा 9/10 यानी गंभीर यौन हमले के आरोपों के तहत मुकदमा चलेगा। इसके साथ ही, निचली अदालत को नए सिरे से सम्मन जारी करने का निर्देश भी दिया गया है।


बताया जा रहा है कि यह मामला 4 साल पुराना है, जब एक महिला ने 12 जनवरी, 2022 को कोर्ट में शिकायत दर्ज कराई थी। महिला ने आरोप लगाया कि 10 नवंबर, 2021 को वह अपनी 14 साल की बेटी के साथ कासगंज के पटियाली में अपने देवरानी के घर गई थीं। लौटते समय गांव के रहने वाले पवन, आकाश और अशोक ने उन्हें रोका। पवन ने लड़की को अपनी बाइक पर बैठाकर घर छोड़ने का वादा किया। मां ने उस पर भरोसा किया, लेकिन रास्ते में पवन और आकाश ने लड़की के प्राइवेट पार्ट को पकड़ लिया। आकाश ने उसे पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास करते हुए उसके पायजामे की डोरी तोड़ दी। 


वहीं लड़की की चीख सुनकर वहां से गुजर रहे सतीश और भूरे ने मदद की, लेकिन आरोपियों ने उन्हें देसी तमंचा दिखाकर धमकाया और भाग गए। जब पीड़िता की मां ने आरोपियों के पिता अशोक के घर जाकर बात की, तो उन्होंने उन्हें गाली-गलौज और धमकी दी गई। पुलिस ने केस दर्ज नहीं किया। इसके बाद महिला ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। आरोपियों की ओर से वकील अजय कुमार वशिष्ठ ने तर्क किया कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप सही नहीं हैं। जबकि शिकायतकर्ता की ओर से वकील इंद्र कुमार सिंह और राज्य सरकार के वकील ने कहा कि समन जारी करने के लिए केवल प्रथम दृष्टया मामला साबित करना आवश्यक होता है, विस्तृत सुनवाई की जरूरत नहीं होती। इस फैसले को लेकर अब सवाल उठने लगे हैं कि क्या ऐसी टिप्पणी से लोगों का न्यायिक प्रक्रिया के प्रति विश्वास कायम रह जायेगा।

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