नेतागीरी से चौपट हो रहा है शिक्षा व स्वच्छता का अभियान
Education and sanitation campaign is being ruined by leadership
बस्ती, 02 दिसम्बर। परिषदीय विद्यालयों के शिक्षक एवं सफाई कर्मचारी सरकार की मंशा और महत्वाकांक्षा का सत्यानाश कर रहे हैं। दोनों ही विभागों में 20 प्रतिशत से ज्यादा कर्मचारी सफेदपोश होकर जिला मुख्यालय पर राजनीति कर रहे हैं और जो मेहनत और लगन से अपनी डियूटी कर रहे हैं उन्हे चिढ़ा रहे हैं। यही कारण है कि सरकार के अनेक प्रयासों के बावजूद परिषदीय विद्यालयों की व्यवस्था नही सुधर रही है और न ही गावों में स्वच्छता ही संतोषजनक है।
मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक शिक्षा और स्वास्थ्य को अपनी प्राथमिकताओं में गिनाते रहते हैं लेकिन इन दोनो महकमों के कर्मचारी यूनियन बनाकर अपनी राजनीति चमका रहे हैं। शिक्षक, हों या सफाईकर्मी इनकी शरीर पर अफसरों से अच्छे कपड़े देखने को मिलते हैं और इनके पास उनसे अच्छी लग्जरी गाड़ी भी है। दोनो के अपने संगठन हैं, जो अफसरों पर दबाव बनाने का काम करते हैं और कर्मचारियों से उनकी सुरक्षा और उनके अधिकारों के लिये संघर्ष करने के नाम पर मोटी रकम वसूलते हैं। नतीजा ये है कि अनेकों अध्यापक और सफाईकर्मी बगैर डियूटी के तनख्वाह उठा रहे हैं।
सूत्रों की मानें तो तनख्वाह से ज्यादा इनके पास अवैध वसूली से आ रहा है जिससे इनके चेहरों की चमक और कपड़ों की ताजगी बनी रहती है। एक ओर अधिकांश परिषदीय विद्यालयों में पढ़ाई की गुणवत्ता नही है तो दूसरी ओर गावों में महीनों से किसी ने सफाईकर्मी को नही देखा। इस मनमानी के लिये ये अपने आका को माहवार रकम देते हैं जिससे किसी अफसर की नजर इन पर टेढ़ी हो तो उस पर दबाव बनाने के लिये संगठन को साथ लेकर आका अपना असर दिखायें और अफसर अपना सम्मान बचाने के लिये चुप्पी साध ले। यह अनेक अफसरों की कार्यशैली का हिस्सा बन चुका है। बहुत कम अफसर होते हैं जो कर्मचारी नेताओं और संगठनों से टक्कर लेते हैं।
अधिकांश बीच का रास्ता अख्तियार करते हैं और कामकाज को आयान बनाते हैं। इन महकमों के आकाओं की पहुंच राजनीति में भी कम नही होती। इन्हे राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त होता है। संगठनों में महत्वपूएार् भूमिका निभाने वाले पदाधिकारी का पॉलीटिकल कनेक्शन उन्हे समय समय पर संरक्षण प्रदान करता है। कोई सपा से जुड़ा है तो कोई भाजपा से। वैसे सत्ताधारी दल से जुड़ा रहना लोग बेहतर मानते हैं। अनेक शिक्षामित्रों और सफाईकर्मियों को विकास भवन से लेकर कलेक्ट्रेट और चाय पान की दुकानों पर दिन काटते या बाहें बटोरते हुये अपनी वाहवाही लूटते देखा जा सकता है।
अफसर भी कम मक्कार नही हैं। संगठनों के आका उनकी कमजोरियों को ढाल बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। अफसर खुद में सुधार लायें और इनकी समस्याओं का समय से समाधान करते रहें तो नेतागीरी छोड़ ये अपनी डियूटी मन लगाकर करेंगे और इसके नतीजे भी दिखाई देंगे। वरना हराम का खाने की चलन बन चुकी है, मतदाता से जनता तक, कर्मचारी से अफसर तक सभी कम से कम काम करके अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने के चक्कर मे हैं। कार्य संस्कृति यही रही तो सिस्टम मे सुधार की कल्पना बेमानी होगी। बेहतर होगा अफसर खुद मे सुधार लायें और महकमों मे बेवजह नेतागीरी न पनपने दें, समधान की एक संस्कृति और सीमा है वहां तक जाकर समस्याओं के समाधान में रूचि लें। ऐसा करने पर तस्वीर बदली हुई दिखाई देगी और सरकार की मंशा भी धरातल पर नतीजों के रूप में दिखाई देगी।









































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